कितना सुन्दर हुआ करता था
जीवन में विविध रंग भरता था
साँसों में बसा प्राणवायु सा
उम्र को वह देता आयु सा
दोनों के बीच का बंधन था वह
निःस्वार्थ भाव का अर्पण था वह
फ़ूल- पत्तों को सींचा खूब मगर
क्यूँ मुरझाता जड़ सींचते अगर
कभी एकतरफ़ा हो मर जाता है
कहीं धोखे की सज़ा पाता है
न जाने कब मन ऊबने लगा
इक पक्का धागा छीजने लगा
उपेक्षा दुर्व्यवहार का पोषण ले
अहंकार की घनी छाँव के तले
अविश्वास का अंकुर फूटा
समझो कि हर रिश्ता टूटा
ख़ूबियाँ खामियां हो गयीं
साझेदारी कहीं खो गयी
रिश्ता बासी भात हो गया
सुगंध रूप सभी खो गया
अब वेंटिलेटर पर ज़िंदा है
इस अवगति से शर्मिंदा है
अभी कुछ समय और सहेगा
अंतिम मौक़ा फ़िर से देगा
पुनर्जीवित होते देखा है कम
रिश्ते वेंटिलेटर पर तोड़ते दम I © तनूजा उप्रेती