आज सहसा मिली दो चिट्ठियां। फालसई ,आकाश पर टंगी। शायद तुम्हीं ने टांका था उन्हें, आसमान पर। तुम्हारी अधूरी बातों की तरह, दोनों अधखुली सी , दोनों अध लिखी सी। आहिस्ता से मैंने उतारा उन्हें । कागज पर लिखे हर शब्द, यूं ही बिखर गए मेरी हथेली पर। एकटक देखते रहे, वो मुझे। पढ़ना चाहा, तुम्हारा नाम। अचानक उछल पड़े कुछ शब्द। मेरे होठों तक आकर दे गए, तुम्हारे छुअन का एहसास। मैं अवाक सा रह गया। शायद उन्हें भी मंजूर नहीं था, तुम्हारा बेपर्दा होना।
शशांक मिश्रा 'सफ़ीर'
कविता (प्रेम)
Mar 6, 2018 7:11 pm
दो चिट्ठियां
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