रास्ते मे औंधे मुंह ,
था पड़ा हुआ लथपथ,
एक गीत नाजायज !
चप्पलों की रगड़न से,
सिलवटें थीं माथे पर,
अधमरे से कागज़ के !
हर्फ हर्फ में पीड़ा,
पंक्ति पंक्ति में आंसू,
हाय गीत बेचारा !
पाँव पड़ गया मेरा,
गीत ज़ोर से चीखा,
मैं झुका उठाने को ।
गीत को उठा करके,
मैंने उसका मुंह पोछा,
और फिर लगा पढ़ने ।
गीत ने कहा मुझसे,
मत पढ़ो मुझे भाई,
फेंक दो कहीं मुझको।
मैने पूछा क्यों? बोला,
मैं नही स्वतः उपजा,
मैं रचा गया हूँ बस।
मैं रचा गया हूँ बस,
और हाँ ज़बरदस्ती,
एक अच्छी कीमत पर !
नामचीन बंदे ने ,
इक गरीब शायर से,
था किया मेरा सौदा।
उसने उसको सौंपा था,
इक अजीब सा मौजू,
और कई शर्तें भी!
शर्त के मुताबिक ही,
तो लिखा गया हूँ मैं,
देखने मे कैसा हूँ?
खैर छोड़ो ये बोलो,
तुम तो जानते होंगे,
गीत ख़ुद उपजता है।
गीत ख़ुद उपजता है,
मैं लिखा गया हूँ ना,
वो भी चंद नोटों पर।
मैं कहाँ स्वतः जन्मा,
हूँ किसी के अंतस से,
बस यही है’ मेरा दुःख ।
सच कहूं तो भाई जी,
टेस्ट ट्यूब बेबी हूँ,
याकि हूँ मैं नाज़ायज!
नामचीन बंदे की ,
डायरी से भागा था,
जैसे तैसे बच करके।
किंतु क्रूर दुनिया ने,
पांव से कुचल डाला।
क्यों बचा लिया तुमने?
हो सके तो भाई जी,
दर्द मेरा लिख देना,
और फिर जता देना।
किंतु तुम मुझे पहले,
आग में जला देना,
राख भी उड़ा देना।
मेरे दिल की ख्वाहिश है,
तुम मुझे विदा दोगे,
मैं हूँ गीत नाजायज!
मैं हूँ गीत नाजायज!
-दीपक अवस्थी