उजड़ता गया शहर पुरानों सा ।
चलता गया एक अनजानों सा
रख कर अपनी ही नमी को ,
रिसता रहा मकान पुरानों सा ।
तंग नही गलियाँ शहर की मेरे ,
रास्ता मिलता नही ठिकानों का ।
तंग दिल नही है लोग मेरे वास्ते ,
थामे हर शख़्स दामन बहानो का ।
“निश्चल” जानता सारा शहर यूँ तो ,
मोहताज़ है आज भी पहचानों का ।
…. विवेक दुबे”निश्चल”@….