खोते हैं सम्बन्ध जब , या पाते अपमान।
दुर्बल मानव ही तभी , अपनाते मधु – पान ।।(१)।।
सोंच समझ कर चल पड़ें ,मधुशाला जब पाँव ।
मिटने को आतुर समझ, सिर से घर की छाँव।।(२)।।
मन को करती है भ्रमित , तन को दुख-आगार ।
क्षय करती है बुद्धि का , किंचित करो विचार ।।(३)।।
सुरा सोम से भिन्न है , समझ न एक समान।
असुर भाव जब हो प्रबल , करें सुरा का पान ।।(४)।।
मदिरा की लत त्याग दो, यह है चिता समान।
तन को तिल तिल कर जला , ले लेती है प्रान ।।(५)।।
सतसंगत कर लो सभी ,सत्य करो स्वीकार।
सृष्टि सुरभि- संयुक्त है, सदा सोम आधार।।(६)।।
पान करो सब प्रात ही , प्राणवायु साभार ।
नित नूतन देती मही ,अति अनुपम उपहार ।।(७)।।
नशा करो तो प्रेम का , मदिरा जाओ भूल।
अन्तर्मन को साफ कर , मद पर डालो धूल ।।(८)।।
दुख भी जीवन के सभी ,बन जायेगें फूल।
मदिरा से मन को हटा ,द्विविधा में मत झूल ।।(९)।।
शुभा शुक्ला मिश्रा ‘अधर’