उठाओ जो लफ्ज़ तो एहतियात से उठाना
बिगड़ के बनने में फिर ज़माना लगता है
किताबें कल कह रही थी मुझसे बारहां
तू मुझे अब भी चाहता है,दीवाना लगता है
वो हर्फ़ की खुशबू,वो अहसासों की रानाई
अपनी धुन में चले तो कोई तराना लगता है
बंद कमरे की मद्धम रोशनी में छिपाकर
मुझमें खत पढ़ते हो,राज़ पुराना लगता है
रात-रात भर किताबों में जागा था कभी
अब वही हक़ीक़त, कोई फसाना लगता है
सलिल सरोज