दास्तान-ए-ग़म सुना कर चुप रहा
अशक आँखों में छिपा कर चुप रहा
रोक लेती है मुझे ख़ुददारियां
मैं गिला होंटों पे ला कर चुप रहा
ज़िंदगी तो चाहती थी रो पड़ूँ
पर ग़मों में मुस्कुरा कर चुप रहा
ज़ब्त मेरा ज़िंदगी तू देख ले
क़ुफ़्ल होंटों पर लगा कर चुप रहा
ज़िंदगी करती रही मुझसे सवाल
मैं उसे लेकिन चुपा कर चुप रहा
ज़िंदगी महफ़ूज़ होती ही नहीं
मैं उसे इतना बता कर चुप रहा
लड़खड़ाने भी लगे मेरे क़दम
बोझ ग़म का में उठा कर चुप रहा
हो गया बर्बाद गुलशन जब मिरा
ख़ाक में अरमाँ मिला कर चुप रहा
सामने आता तो करते गुफ़्तगु
ख़ुद को लेकिन वो छुपा कर चुप रहा
साद ने सोचा था रोएगा बहुत
पर उसे वो तो भुला कर चुप रहा
अरशद साद रुदौलवी