ज़ख़्म है दिल में इक ज़माने से
क़ुर्बत से अब ये दुखने लगा है
ज़िन्दगी भर ऊँचा रहा जो सर
डर-ए-हुकूमत से झुकने लगा है
जो लड़कर तूफानों में जलता रहा
वो हवा के जद से बुझने लगा है
मंज़िल पहुँचे के ही दम लेते थे
वो क़दम हर मोड़ पे रुकने लगा है
लहलहाता था हर रिश्ता खेत सा
ज़हर के छिड़काव से सूखने लगा है
सलिल सरोज