जिन्हें कोई समझ नहीं है शेर की
वो भी मेरे नज़्म की जात पूछते हैं
जो राज़ दबा रखा है मेरी ग़ज़लों ने
बारहाँ मुझसे आके वही बात पूछते हैं
चंद मतलों की भी जिनकी ज़िंदगी नहीं
वो भी अब ग़ालिब की औकात पूछते हैं
कब तक यूँ जगाओगे हमें महफ़िलों में
मुक़र्रर और इरशाद ये हर रात पूछते हैं
कुछ शऊर भी चाहिए हर मिसरे को
जो कदम-दर-कदम कोई सौगात पूछते हैं
सलिल सरोज