मुश्किलों से बहुत सँभलते हैं l
तेरे कूचे से जब निकलते हैं ll
तेरी सांसो की ज़द में आते ही,
मेरे एहसास सब पिघलते हैं l
लब की थिरकन बयान कर बैठी,
तेरे ख़्वाबों में हम मचलते हैं l
मख़मली सी छुअन वो होठों की,
आज भी मेरे कान जलते हैं l
जिनके दिल का क़रार कल हम थे,
आज आँखों को उनकी खलते हैं l
सूख जाते हैं अश्क़ भी उनके,
दिल को अपने जो ख़ुद ही छलते हैं l
आपको देख कर यकीं आया,
यार इन्सान भी बदलते हैं l
@ सुनील गुप्त ‘विचित्र’