बुझने लगे चराग हमारे तो शहर में |
ऐसी लगी है आग हमारे तो शहर में |
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मिलती सजा है जुर्म की हमने सुना मगर,
मिलता नहीं सुराग हमारे तो शहर में |
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अनपढ़ गँवार गाँव में इन्सान तो मगर,
सारे हैं बद दिमाग हमारे तो शहर में |
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खिलती कली को आज न भँवरे खिला रहे,
नोंचे उसे ये काग हमारे तो शहर में |
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कोखें सिसक रहीं हैं जो उजड़ी यहाँ कभी,
मुश्किल में है सुहाग हमारे तो शहर में |
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चलते हैं काम जिनकी ही शोहरत के देखिये,
उड़ते हवा में दाग हमारे तो शहर में |
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ऊँचे हकीम खाने हैं फिर भी तो मर्ज से,
मिलता नहीं फराग हमारे तो शहर में |
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खुशबू न अब गुलों की तबीयत को भा रही,
धूमिल हुए पराग हमारे तो शहर में |
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मिलता न आशियां है परिन्दे को अब मनुज,
बस्ती हुए हैं बाग हमारे तो शहर में ||