वो शोलों को राख समझता रहा
हर बार बस यूँ ही जलता रहा
दिक्कत खुद की आदतों में थी
हर मोड़ बस राह बदलता रहा
जन्नत में खुदा की अर्ज़ी लगाई
और तमाशबीन से मिलता रहा
किस्मत के सहारे सफर पे चला
और सूखे पत्ते जैसा हिलता रहा
बस दो घडी रौशनी की चाह में
किसी मोम सा पिघलता रहा
सलिल सरोज