सुकूँ कहीं ना मयस्सर हुआ कहाँ जाऊं
बदन से रूह हुई है ख़फ़ा कहाँ जाऊं
सितमगरों की है बस्ती सभी सितम-गर हैं
मैं अपना छोड़ के अब घर भला कहाँ जाऊं
तिरी रज़ा है तो जिस हाल में भी रक्खे मुझे
में तेरा छोड़ के दर ऐ ख़ुदा कहाँ जाऊं
गुनाह करके नदामत हुई है जब मुझको
तो याद आया ख़ुदा के सिवा कहाँ जाऊं
हर एक मोड़ पे मेला फ़रेब का है लगा
हर एक शख़्स है करता जफ़ा कहाँ जाऊं
हर एक सिम्त ही मज़लूम चीख़ता सा लगे
जिधर भी जाऊं है उनकी सदा कहाँ जाऊं
किसी के पास नहीं साद वक़्त ही इतना
सुने जो ग़म का फ़साना मिरा कहाँ जाऊं
अरशद साद रुदौलवी