गजल
छलकने वाले जाम का मयख़ाना कहां रहा!
आजकल दिलजलों का ये ठिकाना कहां रहा!
वो बैच गए पैसों पर अपने आप को यारो,
मेरे दिल का वहां अब आशियाना कहां रहा!
क्या चाहत है फ़रेबी चेहरे पर देखने को मिली,
रिश्तों की अहमियत का जमाना कहाँ रहा!
टूटा हुआ आईना पूछ रहा है मुझसे सवाल,
मेरी तरह रूबरू किसी को कराना कहां रहा!
चाँद भी गवाही दे रहा है ग्रहण लिए आज,
वो भी चाँदनी का आज दीवाना कहां रहा!
किसी तरह ये शाम गुजर जाए गम भरी,
शब की आगोश में दर्द पाना कहां रहा!
ऐ “मुसाफ़िर “तेरी याद में शायद दर्द गहरा है,
कागज की दीवार पर दर्द लिख पाना कहां रहा!!
रोहताश वर्मा “मुसाफ़िर “