ज़हर-ऐ-गम पीकर जिने का दम रख्खा हैं
मगर तेरी यादो ने आँखों को नम रख्खा हैं
ज़फ़ा कर वफ़ा कर या मुझे कत्ल कर,
मगर तेरे नाम का दिया दिवार पर सनम रख्खा हैं
अहसास ज़ुदा ज़ुदा फ़क़्त अश्कबार रहते हैं
ज़ुदा होकर तुमसे दिल में दर्द-ऐ-गम रख्खा हैं
हर शब मारकर भी मुझे मरने नहीं देती ये
तुम्हारी यादो ने इतना कर सितम रख्खा हैं
आज नहीं तो कल लौट आएगा वो मेरे पास
देखो इस नादाँ दिल ने कैसे कैसे भ्रम रक्खा हैं
तेरा मुकद्दर ही नहीं कारवाँ तक बह जाएगा
इन आँखों में आंसू के बदले ज़म रख्खा हैं
कागज़ लहु में तर कर दास्ता तहरीर करते
फ़लाँ पुछते हैं कैसे ज़ोर-ऐ-कलम रख्खा हैं