अपने नज़्मों में ही सही मैं तुझे पा तो सकूँ
क्या दरयाफ्त हैं सीने में मेरे सुना तो सकूँ
एक आग लगी है अहसाओं के समंदर में
तेरी निगाहों की बरसात से बुझा तो सकूँ
बड़ा कमज़र्फ है ज़माना हमारे इश्क़ को
तेरी जुस्तजू में कोई तूफ़ान उठा तो सकूँ
क्या हुआ कि तुम और मैं गैर-मज़हबी हैं
अब बेबुनियादी दीवार को गिरा तो सकूँ
तुम मेरे सफर में बस इतना साथ दे कि
आसमान पे बैठे खुदा को झुका तो सकूँ
सलिल सरोज