यूँ ही हर बात पर अक्सर जो हँसते-खिलखिलाते हैं l
नुमाया करके मुस्कानें वो ग़म सारे छिपाते हैं ll
हमारी मस्तियों का राज़ बस इतना सा है सुन लो,
अहद लेते नहीं कोई जो लेते हैं निभाते हैं l
घटाओं जा के’ ये पैग़ाम तुम महबूब को दे दो,
जुदाई के ये’ पल लेकर हमारी जान जाते हैं l
ज़माने से अलग अंदाज़ हैं उनकी मुहब्बत के,
खिझाते हैं, रुलाते हैं, सताते हैं, मनाते हैं l
चलो माना नहीं हमसे मुहब्बत आपको बिलकुल,
ग़ज़ल फिर आप मेरी क्यूँ हमेशा गुनगुनाते हैं
हमारी रूह को तस्कीन मिलती है उसी पल में,
वो करके क़त्ल मेरा जब अदा से मुस्कुराते हैं l
@ सुनील गुप्त ‘विचित्र’