गजल
मुहब्बत की दरिया में नहाकर देखा है!
जबसे उन्होंने नजर मिलाकर देखा है!
कारवाँ ही बदल गया जिंदगी का,
उन्हें अपने दिल से लगाकर देखा है!
शुरूआत अजीब थी अपने मिलन की,
खुशियों की सेज को सजाकर देखा है!
जमाना जलता है अपनी चाहत पर सनम,
दीवारों के कान लगाकर देखा है!
हम परिंदे हैं आजाद आसमां के,
इन नजारों में खुद को उड़ाकर देखा है!
प्रेम की ताकत जमाना क्या जाने,
इसने तो बस खून बहाकर देखा है!
मिल जाती है मंजिल भटके “मुसाफ़िर “को,
जिसने मुहब्बत की पनाह में आकर देखा है!!
रोहताश वर्मा “मुसाफिर “