हों जो हक़ पर तो बहत्तर नहीं देखे जाते
रन में कुफ़्फ़ार के लश्कर नहीं देखे जाते
हम हुसैनी हैं कटा देंगे सरों को हमसे
दर पे बातिल के झुके सर नहीं देखे जाते
अज़्म ए कामिल है तो मंज़िल की तरफ़ बढ़ते रहो
फिर निशाँ पांव के मुड़ कर नहीं देखे जाते
ये बग़ावत है अगर तुझसे बग़ावत ही सही
अब तिरे ज़ुल्म सितम-गर नहीं देखे जाते
हर तरफ़ लाशें हैं बिखरी हुई मज़लूमों की
अपनी आँखों से ये मंज़र नहीं देखे जाते
तब से गुलशन पे मुसल्लत है ख़िज़ां का मौसम
जब से बस्ती में क़लंदर नहीं देखे जाते
दर्द उन ज़ख़मों का आख़िर में बयाँ कैसे करूँ
तुमसे जो जिस्म के अंदर नहीं देखे जाते
आसमानों की बुलंदी था ठिकाना जिनका
उन परिंदों के कटे पर नहीं देखे जाते
आज क़ासिद की ज़रूरत ही कहाँ पड़ती है
अब सर-ए-बाम कबूतर नहीं देखे जाते
चीख़ते बच्चे सिसकती हुई माएं हैं यहां
हमसे बस्ती के जले घर नहीं देखे जाते
तीरगी साद मिटाते जो हमारे दिल की
सूरज अब ऐसे ज़मीं पर नहीं देखे जाते
अरशद साद रुदौलवी