आती ना कभी मिस्र के बाज़ार में लज़्ज़त
यूसुफ़ से ही दर आई ख़रीदार में लज़्ज़त
दुश्मन ने बड़े प्यार से फिर मुझसे कहा है
आएगी तिरे ख़ून से तलवार में लज़्ज़त
इन्सान का किरदार भी इंसां सा नहीं अब
लहजे में सदाक़त है ना गुफ़तार में लज़्ज़त
लम्हों में गुज़र जाती है सदियों की मुसाफ़त
रच बस गई यूं वक़्त की रफ़्तार में लज़्ज़त
सच्च आप लिये फिरते हैं सुर्ख़ी के लिए क्यों
आती है मियां झूट से अख़बार में लज़्ज़त
वो लुतफ़ कहाँ अब है जो अपनों में कभी था
दिलदार ना साथी ना किसी यार में लज़्ज़त
मर जाये ना टकरा के ही सर साद किसी दिन
मत पूछ है कैसी तिरी दीवार में लज़्ज़त
अरशद साद रुदौलवी