इज़्ज़त वक़ार लुट गए दस्तार गिर गई
महर-ओ-ख़ुलूस की सभी दीवार गिर गई
जोश-ए-जुनूँ में निकला में क़ातिल तलाशने
क़ातिल मिला जो भाई तो तलवार गिर गई
हमने उतार फेंका हया का लिबास जब
क़ीमत ही उस की फिर सर-ए-बाज़ार गिर गई
जिस आशयां को मैंने बनाया था प्यार से
नफ़रत की बर्क़ उसपे भी ऐ यार गिर गई
मुझको ख़ुदा की ज़ात से उम्मीद है फ़क़त
क्या ग़म कि मेरे हाथ से पतवार गिर गई
ज़ालिम समझ रहा था हुकूमत है उस का हक़
आँखें खुलीं तो ज़ुल्मकी सरकार गिर गई
अमन-ओ-अमाँ की साद थी उम्मीद मुल्क में
सेहत हर एक आस की लाचार गिर गई
अरशद साद रूदौलवी