हमारी अक़्ल पर ताले पड़े हैं
खन्डर है ज़हन और जाले पड़े हैं
बज़ाहिर साफ़ आते हैं नज़र दिल
मगर अंदर से तो काले पड़े हैं
ये पहला तो नहीं है आस्तीं में
बहुत से साँप हम पाले पड़े हैं
मयस्सर कैसे हो दो वक़्त रोटी
कि जब इक वक़्त के लाले पड़े हैं
करें ख़ुद ही ख़िज़ाओं के हवाले
चमन के ऐसे रखवाले पड़े हैं
बहुत रोया जुदा हो कर वो शायद
तभी तो आँख में हाले पड़े हैं
दहकते रास्तों पर चल पड़े थे
अभी तक पांव में छाले पड़े हैं
लुटा दें जान भी उलफ़त में अपनी
कि ऐसे साद मतवाले पड़े हैं
अरशद साद रुदौलवी