ज़िंदगी पर मौत का जब ख़ौफ़ सा तारी हुआ
सिलसिला तब सांस लेने का बहुत भारी हुआ
बात इतनी है की सच को सच कहा था इस लिए
क़तल का फ़रमान मेरे वास्ते जारी हुआ
जो ज़माने से छुपाता फिर रहा था राज़ मैं
हो गई तशहीर उसकी अब वो अख़बारी हुआ
मैं भटकता रह गया डिग्री लिए अपनी तमाम
जिसने दी रिश्वत यहां पर वो अधिकारी हुआ
एक इक क़तरा किसानों के लहू को चूस लो
फिर ग़रीबों के लिए ऐलान सरकारी हुआ
किस तरह मैं ख़्वाहिशों की सेज पर बैठा रहूं
क़तल जब अरमाँ हुए मुझ पर जुनूँ तारी हुआ
कोई शिकवा भी नहीं है ज़िंदगी से साद को
हाँ मगर लहजा मिरा तर्ज़-ए-अज़ादारी हुआ
अरशद साद रूदौलवी