शाम सुबहा सी सुहानी ख़र्च होती जा रही
यूँ सभी की ज़िंदगानी ख़र्च होती जा रही
पास आती मौत को क्यूँ देख हम न पा रहे
बचपने में ही जवानी ख़र्च होती जा रही
धर्म की चलती क़लम से मेहरबां को बाँटकर
आलिमों की तर्ज़ुबानी ख़र्च होती जा रही
चीख़ते इंसान थोड़ा डर ख़ुदा के वास्ते
नाख़ुदा की बेज़ुबानी ख़र्च होती जा रही
ढल रहा सूरज दिखाता रोज़ सबको ही यहाँ
लालिमा वो आसमानी ख़र्च होती जा रही ।। धन्यवाद सुर ।।