दूर से दूर तलक एक भी दरख्त न था
तुम्हारे घर का सफ़र इस क़दर सख्त न था
इतने मसरूफ़ थे हम जाने के तैयारी में
खड़े थे तुम और तुम्हें देखने का वक्त न था
मैं जिस की खोज में ख़ुद खो गया था मेले में
कहीं वो मेरा ही एहसास तो कमबख्त न था
जो ज़ुल्म सह के भी चुप रह गया न ख़ौल उठा
वो और कुछ हो मगर आदमी का रक्त न था
उन्हीं फ़क़ीरों ने इतिहास बनाया है यहाँ
जिनपे इतिहास को लिखने के लिए वक्त न था
शराब कर के पिया उस ने ज़हर जीवन भर
हमारे शहर में ‘नीरज’ सा कोई मस्त न था
★★★★★★★
ग़ज़ल – गोपाल दास ‘नीरज’